Happy Diwali
धनतेरस पूजा विधि - इस दिन लक्ष्मी जी और कुबेर जी की भी पूजा करते हैं। मान्यता है
कि इस दिन लक्ष्मी-कुबेर जी की पूजा करने से मनुष्य को कभी धन-वैभव की कमी नही होती।
इस दिन खरीदारी करना शुभ माना जाता है।
इस दिन विशेषकर बर्तनों और गहनों आदि की खरीदारी की जाती है।
स्कंदपुराण के अनुसार कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को प्रदोषकाल में घर के दरवाजे पर
यमराज के लिए दीप देने से अकाल मृत्यु का भय खत्म होता है।
दीपदान के समय इस मंत्र का जाप करते रहना चाहिए:
मृत्युना पाशदण्डाभ्यां कालेन च मया सह।
त्रयोदश्यां दीपदानात सूर्यज: प्रीयतामिति॥
धनतेरस की कथा कहा जाता है कि इसी दिन यमराज से राजा हिम के पुत्र की रक्षा उसकी
पत्नी ने किया था, जिस कारण दीपावली से दो दिन पहले मनाए जाने वाले ऐश्वर्य का त्यौहार
धनतेरस पर सांयकाल को यमदेव के निमित्त दीपदान किया जाता है। इस दिन को यमदीप दान भी
कहा जाता है। मान्यता है कि ऐसा करने से यमराज के कोप से सुरक्षा मिलती है और पूरा परिवार
स्वस्थ रहता है।इस दिन घरों को साफ़-सफाई, लीप-पोत कर स्वच्छ और पवित्र बनाया जाता है और
फिर शाम के समय रंगोली बना दीपक जलाकर धन और वैभव की देवी मां लक्ष्मी का आवाहन
किया जाता है।
मृत्युना पाशदण्डाभ्यां कालेन च मया सह।
त्रयोदश्यां दीपदानात सूर्यज: प्रीयतामिति॥
श्री महालक्ष्मी व्रत
श्री महालक्ष्मी व्रत का प्रारम्भ भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि केदिन से किया जाता है(Maha Lakshami fast is started on Ashtami of Bhadrapad Shukla Paksha). वर्ष 2011 में यह व्रत 4 सितम्बर के दिन शुरु होगा. यह व्रत राधा अष्टमी केही दिन किया जाता है. यह व्रत 16 दिनों तक चलता है. यह व्रत इस वर्ष 4 सितम्बर से शुरु होकर 19 सितम्बर तक रहेगा. इस व्रत में लक्ष्मी जी का पूजन किया जाता है.
श्री महालक्ष्मी व्रत विधि | Mahalakshmi Vrat Vidhi
सबसे पहले प्रात:काल में स्नान आदि कार्यो से निवृ्त होकर, व्रत का संकल्प लिया जाता है. व्रत का संकल्प लेते समय निम्न मंत्र का उच्चारण किया जाता है.
करिष्यsहं महालक्ष्मि व्रतमें त्वत्परायणा ।
तदविध्नेन में यातु समप्तिं स्वत्प्रसादत: ।।
अर्थात हे देवी, मैं आपकी सेवा में तत्पर होकर आपके इस महाव्रत का पालन करूंगा. आपकी कृ्पा से यह व्रत बिना विध्नों के पर्रिपूर्ण हों, ऎसी कृ्पा करें.
यह कहकर अपने हाथ की कलाई में बना हुआ डोरा बांध लें, जिसमें 16 गांठे लगी हों, बाध लेना चाहिए. प्रतिदिन आश्चिन मास की कृ्ष्ण पक्ष कीअष्टमी तक यह व्रत किया जाता है. और पूजा की जाती है. व्रत पूरा हो जाने पर वस्त्र से एक मंडप बनाया जाता है. उसमें लक्ष्मी जी कीप्रतिमा रखी जाती है.
श्री लक्ष्मी को पंचामृ्त से स्नान कराया जाता है. और फिर उसका सोलह प्रकार से पूजन किया जाता है. इसके बाद व्रत करने वाले उपवासक को ब्रह्माणों को भोजन कराया जाता है. और दान- दक्षिणा दी जाती है.
पूजन सामग्री में चन्दन, ताल, पत्र, पुष्प माला, अक्षत, दूर्वा, लाल सूत, सुपारी, नारियल तथा नाना प्रकार के भोग रखे जाते है. नये सूत 16-16 की संख्या में 16 बार रखा जाता है. इसके बाद निम्न मंत्र का उच्चारण किया जाता है.
क्षीरोदार्णवसम्भूता लक्ष्मीश्चन्द्र सहोदरा ।
व्रतोनानेत सन्तुष्टा भवताद्विष्णुबल्लभा ।।
अर्थात क्षीर सागर से प्रकट हुई लक्ष्मी जी, चन्दमा की सहोदर, श्री विष्णु वल्लभा,महालक्ष्मी इस व्रत से संतुष्ट हो. इसके बाद चार ब्राह्माण और 16 ब्राह्माणियों को भोजन करना चाहिए. इस प्रकार यह व्रत पूरा होता है. इस प्रकार जो इस व्रत को करता है, उसे अष्ट लक्ष्मी की प्राप्ति होती है.
16वें दिन इस व्रत का उद्धयापन किया जाता है. जो व्यक्ति किसी कारण से इस व्रत को 16 दिनों तक न कर पायें, वह 3 दिन तक भी इस व्रत को कर सकता है. व्रत के तीन दोनों में प्रथम दिन, व्रत का आंठवा दिन व व्रत के 16वें दिन का प्रयोग किया जा सकता है. इस व्रत को लगातार 16वर्षों तक करने से विशेष शुभ फल प्राप्त होते है. इस व्रत में अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए. केवल फल, दूध, मिठाई का सेवन किया जा सकता है.
महालक्ष्मी व्रत कथा | Mahalakshmi Vrat Katha in Hindi
प्राचीन समय की बात है, कि एक बार एक गांव में एक गरीब ब्राह्माण रहता था. वह ब्राह्माण नियमित रुप से श्री विष्णु का पूजन किया करता था. उसकी पूजा-भक्ति से प्रसन्न होकर उसे भगवान श्री विष्णु ने दर्शन दिये़. और ब्राह्माण से अपनी मनोकामना मांगने के लिये कहा, ब्राह्माण ने लक्ष्मी जी का निवास अपने घर में होने की इच्छा जाहिर की. यह सुनकर श्री विष्णु जी ने लक्ष्मी जी की प्राप्ति का मार्ग ब्राह्माण को बता दिया, मंदिर के सामने एक स्त्री आती है,जो यहां आकर उपले थापती है, तुम उसे अपने घर आने का आमंत्रण देना. वह स्त्री ही देवी लक्ष्मी है.
देवी लक्ष्मी जी के तुम्हारे घर आने के बार तुम्हारा घर धन और धान्य से भर जायेगा. यह कहकर श्री विष्णु जी चले गये. अगले दिन वह सुबह चार बचए ही वह मंदिर के सामने बैठ गया. लक्ष्मी जी उपले थापने के लिये आईं, तो ब्राह्माण ने उनसे अपने घर आने का निवेदन किया. ब्राह्माण की बात सुनकर लक्ष्मी जी समझ गई, कि यह सब विष्णु जी के कहने से हुआ है. लक्ष्मी जी ने ब्राह्माण से कहा की तुम महालक्ष्मी व्रत करो, 16 दिनों तक व्रत करने और सोलहवें दिन रात्रि को चन्द्रमा को अर्ध्य देने से तुम्हारा मनोरथ पूरा होगा.
ब्राह्माण ने देवी के कहे अनुसार व्रत और पूजन किया और देवी को उत्तर दिशा की ओर मुंह् करके पुकारा, लक्ष्मी जी ने अपना वचन पूरा किया. उस दिन से यह व्रत इस दिन, उपरोक्त विधि से पूरी श्रद्वा से किया जाता है.
भगवान शिव को आशुतोष (तत्काल प्रसन्न होने वाले) कहा गया है। वे जल व बिल्वपत्र से ही प्रसन्न होने वाले देवता हैं। शिव महापुराण में कहा गया है कि -
त्रि दलम् त्रि गुणाकारम्, त्रि नेत्रम् च त्रयायुधम्।
त्रि जन्म पाप संहारम्, एक बिल्व शिर्वापणम्॥
अर्थात् - तीन दलों (पत्तियों) से युक्त एक बिल्वपत्र जो हम शिव को अर्पण करते हैं, वह हमारे तीन जन्मों के पापों का नाश करता है तथा त्रिगुणात्मक शिव की कृपा भौतिक संसाधनों से युक्त होती है। अत: श्रावण मास में भगवान भोले को इनके अर्पण करने से अधिक फल प्राप्त होता है।
बारह ज्योतिर्लिंग शिवपुराण कथा में बारह ज्योतिर्लिंग के वर्णन की महिमा बताई गई है। ये 12 ज्योतिर्लिंग मल्लिकार्जुनम्, वैद्यनाथम्, केदारनाथम्, सोमनाथम्, भीमशंकरम्, नागेश्वरम्, विश्वेश्वरम्, त्र्यंम्बकेश्वर, रामेश्वर, घृष्णेश्वरम्, ममलेश्वर व महाकालेश्वरम है।
श्रावण माह के अंतर्गत प्रत्येक सोमवार को शिवलिंग पर शिवामुट्ठी चढ़ाई जाती है। जिसमें :-
* प्रथम सोमवार को कच्चे चावल एक मुट्ठी चढ़ाना शुभ होता है।
* दूसरे सोमवार को सफेद तिल्ली एक मुट्ठी चढ़ाया जाता है।
* तीसरे सोमवार को खड़े मूंग की एक मुट्ठी चढ़ाना चाहिए।
* चौथे सोमवार को जौ एक मुट्ठी चढ़ाने का महत्व है।
* ...और श्रावण मास में अगर पांचवां सोमवार भी आ जाता है, तो सतुआ चढ़ाने का महत्व हैं।
श्रावण मास में दान, पुण्य एवं पूजा-भक्ति करने से अनन्य फल प्राप्त होता है। यदि मनुष्य कर्तव्य के साथ-साथ प्रभु की भक्ति या पूजा के लिए थोड़ा-बहुत भी समय निकाल लेता है, तो उसके जीवन का उद्धार हो जाता है। विशेषकर श्रावण मास में...। पूरे श्रावण माह में शिवजी का पार्थिव पूजन करें तो इस जन्म के साथ-साथ कई जन्मों का कल्याण हो जाता है।
कैसे करें पार्थिव पूजन :-
विधि : पार्थिव पूजन के लिए स्नान आदि से निवृत्त होकर साफ-सुथरे आसन पर पूर्व या उत्तर दिशा में मुंह करके बैठ जाएं। पूजन की सामग्री अपने पास रख लें। अच्छी मिट्टी भी पास रखें। हो सके तो भस्म का त्रिपुण्ड लगाकर बैठें। पवित्री धारण कर आचमन-प्राणायाम करें।
3 बार - ॐ केशवाय नम:। ॐ नारायणाय नम:। ॐ माधवाय नम:- मंत्र का जाप करें।
आचमन के पश्चात दाहिने हाथ के अंगूठे के मूल भाग से ॐ ऋषिकेशाय नम:, ॐ गोविन्दाय नम: कहकर होठों को पोंछ लें एवं हाथ धो लें। इसके बाद बाएं हाथ से जल लेकर दाहिने हाथ से अपने ऊपर और पूजा सामग्री पर जल छिड़क लें। यह बोलकर- ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां- गतोऽपि वा।
- य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि:।।
ॐ पुण्डरीकाक्षं पुनातु, ॐ पुण्डरीकाक्षं पुनातु, ॐ पुण्डरीकाक्षं पुनातु,
हाथ में अक्षत एवं पुष्प लेकर गणपति स्मरण करें।
- गजाननं भूतगणादिसेवितं कपित्यजम्बूफलं चारुभक्षणम्।
उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वर पादपंकजम्।।
3 बार - ॐ केशवाय नम:। ॐ नारायणाय नम:। ॐ माधवाय नम:- मंत्र का जाप करें।
आचमन के पश्चात दाहिने हाथ के अंगूठे के मूल भाग से ॐ ऋषिकेशाय नम:, ॐ गोविन्दाय नम: कहकर होठों को पोंछ लें एवं हाथ धो लें। इसके बाद बाएं हाथ से जल लेकर दाहिने हाथ से अपने ऊपर और पूजा सामग्री पर जल छिड़क लें। यह बोलकर- ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां- गतोऽपि वा।
- य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि:।।
ॐ पुण्डरीकाक्षं पुनातु, ॐ पुण्डरीकाक्षं पुनातु, ॐ पुण्डरीकाक्षं पुनातु,
हाथ में अक्षत एवं पुष्प लेकर गणपति स्मरण करें।
- गजाननं भूतगणादिसेवितं कपित्यजम्बूफलं चारुभक्षणम्।
उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वर पादपंकजम्।।
भगवती गौरी का ध्यान करें : -
- नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नम:
नम: प्रकृत्यै भद्रायै नियता: प्रणता: स्मताम्।।
श्री गणेशाम्बिकाभ्यां नम:, ध्यानं समर्पयामि।
इसके बाद दाहिने हाथ में अर्घ्य पात्र लेकर उसमें कुश, पुष्प, अक्षत, जल और द्रव्य रखकर संकल्प करें -
- ॐ विष्णुर्विष्णु: अध ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीयपरार्धे
श्री श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे-
कलियुगे कलिप्रथम चरणे बौद्धावतारे भूर्लोके जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे... क्षेत्रे नगरे ग्रामे.... नाम संवत्सरे श्रावण मासे (शुक्ल/ कृष्ण) पक्षे- तिथौ... वासरे (अपना गौत्र) गौत्र: नाम अपना (शर्मा/ वर्मा गुप्तो) हम मम सर्वारिष्ट निरसनपूर्वक सर्वपापक्षयार्थ-
दीर्घायुरारोग्य धनधान्यपुत्र-पौत्रदिसमस्तसम्पत्प्रवृद्धयर्थ श्रुतिस्मृति पुराणोक्तफलप्राप्तर्थ श्रीसाम्बसदाशिवप्रीत्यर्थ पार्थिव लिंगपूजनमहं करिष्ये।
इसके बाद भूमि की प्रार्थना करें -
ॐ ह्रीं पृथ्विये नम:।
- मिट्टी ग्रहण- उद्धल्तासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना।
मृत्तिके त्वां गृह्रामि प्रजया च धनेन च।।
या- ॐ हराय नम: बोलकर मिट्टी धारण करें।
इसके बाद
- ॐ महेश्वराय नम: बोलकर लिंग का गठन करें। यह अंगूठे से छोटा न हो और न ही बित्ते से बड़ा हो।
विशेष- जो लोग संक्षिप्त में करना चाहें वो यहां से पूजन शुरू करें।
- नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नम:
नम: प्रकृत्यै भद्रायै नियता: प्रणता: स्मताम्।।
श्री गणेशाम्बिकाभ्यां नम:, ध्यानं समर्पयामि।
इसके बाद दाहिने हाथ में अर्घ्य पात्र लेकर उसमें कुश, पुष्प, अक्षत, जल और द्रव्य रखकर संकल्प करें -
- ॐ विष्णुर्विष्णु: अध ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीयपरार्धे
श्री श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे-
कलियुगे कलिप्रथम चरणे बौद्धावतारे भूर्लोके जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे... क्षेत्रे नगरे ग्रामे.... नाम संवत्सरे श्रावण मासे (शुक्ल/ कृष्ण) पक्षे- तिथौ... वासरे (अपना गौत्र) गौत्र: नाम अपना (शर्मा/ वर्मा गुप्तो) हम मम सर्वारिष्ट निरसनपूर्वक सर्वपापक्षयार्थ-
दीर्घायुरारोग्य धनधान्यपुत्र-पौत्रदिसमस्तसम्पत्प्रवृद्धयर्थ श्रुतिस्मृति पुराणोक्तफलप्राप्तर्थ श्रीसाम्बसदाशिवप्रीत्यर्थ पार्थिव लिंगपूजनमहं करिष्ये।
इसके बाद भूमि की प्रार्थना करें -
ॐ ह्रीं पृथ्विये नम:।
- मिट्टी ग्रहण- उद्धल्तासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना।
मृत्तिके त्वां गृह्रामि प्रजया च धनेन च।।
या- ॐ हराय नम: बोलकर मिट्टी धारण करें।
इसके बाद
- ॐ महेश्वराय नम: बोलकर लिंग का गठन करें। यह अंगूठे से छोटा न हो और न ही बित्ते से बड़ा हो।
विशेष- जो लोग संक्षिप्त में करना चाहें वो यहां से पूजन शुरू करें।
मिट्टी के लिंग बनाकर या शिवलिंग को घर में रखकर पूजन करें।
* ॐ शूलपाणये नम:, हे शिव इह प्रतिष्ठितो भव:, यह कहकर लिंग की प्रतिष्ठा करें।
प्रतिष्ठा के बाद शिवजी का ध्यान करें।
ध्यान- ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं
रत्नाकल्पोज्ज्वलांग परशुभृगबराभीतिहस्तं प्रसन्नम्।
पधासीनं समन्तात स्तुतममरगणैर्व्याध्रकृत्तिं वसानं
विश्वाधं विश्ववीजं निखिलभयहरं पववत्रंत्रिनेत्रम्
आवाहन- ॐ पिनाकघृषे नम: श्री साम्बसदाशिव पार्थिवेश्वर इहागच्छ, इह प्रतिष्ठ, भव।
श्री भगवते साम्बसदाशिव (पार्थिवेश्वराय) नम: आवाहनार्थे पुष्पं समर्पयामि। (बोलकर पुष्प चढ़ाएं)।
पाध- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, आसनार्थे अक्षतान समर्पयामि (चावल चढ़ाएं)
अर्घ्य- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, आचमनीय जलं समर्पयामि। (जल चढ़ाएं)
मधुपर्क- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, मधुपर्क समर्पयामि। (शहद चढ़ाएं)
शुद्धोदक स्नान- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, स्नानीयं जलं समर्पयामि।
पंचामृत स्नान- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, पंचामृत स्नान समर्पयामि।
(पंचामृत चढ़ाएं)
शुद्धोदक स्नान- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, शुद्धोदक स्नान समर्पयामि।
(शुद्ध जल चढ़ाएं)
आचमन- शुद्धोदक स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि (जल चढ़ाएं।
अभिषेक- पार्थिव लिंग पर महिम्न स्तोत्र या वैदिक रुद्र सूक्त से या घर पर कर रहे हों तो नम: शिवाय की माला से अभिषेक करें। फिर गन्धोदक स्नान- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, गन्धोदक स्नान समर्पयामि।
(गन्धोदक से स्नान कराएं)
शुद्ध स्नान- गन्धोदकस्नानान्ते शुद्धस्नानं समर्पयामि।
शुद्धोदक स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।
(शुद्ध जल से स्नान एवं आचमन कराएं)।
वस्त्र- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, वस्त्रं समर्पयामि। (वस्त्र चढ़ाएं)
आचमन- वस्त्रांन्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि। (जल चढ़ाएं)
यज्ञोपवीत- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, यज्ञोपवीत समर्पयामि। (जनेऊ चढ़ाएं)
फिर एक अंचूनी (आचमनी) जल चढ़ाएं।
चन्दन- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, चन्दन समर्पयामि। (चन्दन चढ़ाएं)
भस्म- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, भस्म समर्पयामि। (भस्म चढ़ाएं)
अक्षत- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, अक्षतान समर्पयामि। (अक्षत चढ़ाएं)
पुष्पमाला- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, पुष्पमालां समर्पयामि। (पुष्प, पुष्पमाला चढ़ाएं)
बिल्वपत्र- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, बिल्वपत्राणि समर्पयामि। (बिल्वपत्र चढ़ाएं)
फिर दूर्वा एवं धतूरे का फूल चढ़ाएं।
फिर धूप, धूप के बाद दीपक भगवान को बताएं, यह कहकर -
ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, धूप-माघ्रापयामि, दीपं दर्शयामि।
उसके बाद नैवेद्य लगाएं
ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, नैवेद्यं समर्पयामि (निवेदयामि)। आचमनीयं जलं समर्पयामि। ऋतुफलं समर्पयामि।
पुन: ऋतुफलं समर्पयामि।
फिर- ताम्बुल फलं हिरण्यगर्भ दक्षिणां समर्पयामि। इसके बाद प्रभु शिवजी की आरती करें।
आरती- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, आरर्तिक्यं समर्पयामि। (आरती करके जल गिराएं)
फिर मंत्र पुष्पांजलि
ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, मंत्र पुष्पांजलि समर्पयामि। (फूल चढ़ा दें)
इसके बाद प्रदक्षिणा करें, प्रदक्षिणा के बाद क्षमा-प्रार्थना करें।
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्।
पूजां नैव हि जानामि क्षमस्त परमेश्वर।।
फिर विसर्जन, विसर्जन के बाद समर्पण जल छोड़ें।
अनेन शिवपूजकर्मणा श्री यज्ञस्वरूप: शिव: प्रीयताम् न मम। पूजन कर्म समाप्त करें।
विशेष- उपरोक्त पूजन संक्षिप्त में घर पर ही प्रतिदिन कर सकते हैं। पूजन करने से पहले समस्त सामग्री अपने पास रख लें, जैसे- आरती की थाली, दीपक, अगरबत्ती, फूल, फूलमाला, पंचामृत, शुद्ध जल, घी, शहद, धतूरा, दूर्वा, कुशा आदि। पूजन करते समय पूर्ण ध्यान दें। शिवजी अवश्य आपकी मनोकामना पूर्ण करेंगे।
'शिव चालीसा' श्रावण मास में भगवान भोलेनाथ का 'शिव चालीसा' पढ़ने का अलग ही महत्व है। इस माह के अंतर्गत आप रोजाना शिव चालीसा का पाठ करके भगवान भोलेनाथ की कृपा प्राप्त करके अपने जीवन के सारे दुखों को दूर कर सकते हैं।
।।दोहा।।श्री गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान।
कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान॥
जय गिरिजा पति दीन दयाला। सदा करत सन्तन प्रतिपाला॥
भाल चन्द्रमा सोहत नीके। कानन कुण्डल नागफनी के॥
अंग गौर शिर गंग बहाये। मुण्डमाल तन छार लगाये॥
वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे। छवि को देख नाग मुनि मोहे॥
मैना मातु की ह्वै दुलारी। बाम अंग सोहत छवि न्यारी॥
कर त्रिशूल सोहत छवि भारी। करत सदा शत्रुन क्षयकारी॥
नन्दि गणेश सोहै तहँ कैसे। सागर मध्य कमल हैं जैसे॥
कार्तिक श्याम और गणराऊ। या छवि को कहि जात न काऊ॥
देवन जबहीं जाय पुकारा। तब ही दुख प्रभु आप निवारा॥
किया उपद्रव तारक भारी। देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी॥
तुरत षडानन आप पठायउ। लवनिमेष महँ मारि गिरायउ॥
आप जलंधर असुर संहारा। सुयश तुम्हार विदित संसारा॥
त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई। सबहिं कृपा कर लीन बचाई॥
किया तपहिं भागीरथ भारी। पुरब प्रतिज्ञा तसु पुरारी॥
दानिन महं तुम सम कोउ नाहीं। सेवक स्तुति करत सदाहीं॥
वेद नाम महिमा तव गाई। अकथ अनादि भेद नहिं पाई॥
प्रगट उदधि मंथन में ज्वाला। जरे सुरासुर भये विहाला॥
कीन्ह दया तहँ करी सहाई। नीलकण्ठ तब नाम कहाई॥
पूजन रामचंद्र जब कीन्हा। जीत के लंक विभीषण दीन्हा॥
सहस कमल में हो रहे धारी। कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी॥
एक कमल प्रभु राखेउ जोई। कमल नयन पूजन चहं सोई॥
कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर। भये प्रसन्न दिए इच्छित वर॥
जय जय जय अनंत अविनाशी। करत कृपा सब के घटवासी॥
दुष्ट सकल नित मोहि सतावै । भ्रमत रहे मोहि चैन न आवै॥
त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो। यहि अवसर मोहि आन उबारो॥
लै त्रिशूल शत्रुन को मारो। संकट से मोहि आन उबारो॥
मातु पिता भ्राता सब कोई। संकट में पूछत नहिं कोई॥
स्वामी एक है आस तुम्हारी। आय हरहु अब संकट भारी॥
धन निर्धन को देत सदाहीं। जो कोई जांचे वो फल पाहीं॥
अस्तुति केहि विधि करौं तुम्हारी। क्षमहु नाथ अब चूक हमारी॥
शंकर हो संकट के नाशन। मंगल कारण विघ्न विनाशन॥
योगी यति मुनि ध्यान लगावैं। नारद शारद शीश नवावैं॥
नमो नमो जय नमो शिवाय। सुर ब्रह्मादिक पार न पाय॥
जो यह पाठ करे मन लाई। ता पार होत है शम्भु सहाई॥
ॠनिया जो कोई हो अधिकारी। पाठ करे सो पावन हारी॥
पुत्र हीन कर इच्छा कोई। निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई॥
पण्डित त्रयोदशी को लावे। ध्यान पूर्वक होम करावे ॥
त्रयोदशी ब्रत करे हमेशा। तन नहीं ताके रहे कलेशा॥
धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे। शंकर सम्मुख पाठ सुनावे॥
जन्म जन्म के पाप नसावे। अन्तवास शिवपुर में पावे॥
कहे अयोध्या आस तुम्हारी। जानि सकल दुःख हरहु हमारी॥
॥दोहा॥
नित्त नेम कर प्रातः ही, पाठ करौं चालीसा।
तुम मेरी मनोकामना, पूर्ण करो जगदीश॥
मगसर छठि हेमन्त ॠतु, संवत चौसठ जान।
अस्तुति चालीसा शिवहि, पूर्ण कीन कल्याण॥
* ॐ शूलपाणये नम:, हे शिव इह प्रतिष्ठितो भव:, यह कहकर लिंग की प्रतिष्ठा करें।
प्रतिष्ठा के बाद शिवजी का ध्यान करें।
ध्यान- ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं
रत्नाकल्पोज्ज्वलांग परशुभृगबराभीतिहस्तं प्रसन्नम्।
पधासीनं समन्तात स्तुतममरगणैर्व्याध्रकृत्तिं वसानं
विश्वाधं विश्ववीजं निखिलभयहरं पववत्रंत्रिनेत्रम्
आवाहन- ॐ पिनाकघृषे नम: श्री साम्बसदाशिव पार्थिवेश्वर इहागच्छ, इह प्रतिष्ठ, भव।
श्री भगवते साम्बसदाशिव (पार्थिवेश्वराय) नम: आवाहनार्थे पुष्पं समर्पयामि। (बोलकर पुष्प चढ़ाएं)।
पाध- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, आसनार्थे अक्षतान समर्पयामि (चावल चढ़ाएं)
अर्घ्य- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, आचमनीय जलं समर्पयामि। (जल चढ़ाएं)
मधुपर्क- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, मधुपर्क समर्पयामि। (शहद चढ़ाएं)
शुद्धोदक स्नान- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, स्नानीयं जलं समर्पयामि।
पंचामृत स्नान- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, पंचामृत स्नान समर्पयामि।
(पंचामृत चढ़ाएं)
शुद्धोदक स्नान- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, शुद्धोदक स्नान समर्पयामि।
(शुद्ध जल चढ़ाएं)
आचमन- शुद्धोदक स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि (जल चढ़ाएं।
अभिषेक- पार्थिव लिंग पर महिम्न स्तोत्र या वैदिक रुद्र सूक्त से या घर पर कर रहे हों तो नम: शिवाय की माला से अभिषेक करें। फिर गन्धोदक स्नान- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, गन्धोदक स्नान समर्पयामि।
(गन्धोदक से स्नान कराएं)
शुद्ध स्नान- गन्धोदकस्नानान्ते शुद्धस्नानं समर्पयामि।
शुद्धोदक स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।
(शुद्ध जल से स्नान एवं आचमन कराएं)।
वस्त्र- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, वस्त्रं समर्पयामि। (वस्त्र चढ़ाएं)
आचमन- वस्त्रांन्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि। (जल चढ़ाएं)
यज्ञोपवीत- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, यज्ञोपवीत समर्पयामि। (जनेऊ चढ़ाएं)
फिर एक अंचूनी (आचमनी) जल चढ़ाएं।
चन्दन- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, चन्दन समर्पयामि। (चन्दन चढ़ाएं)
भस्म- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, भस्म समर्पयामि। (भस्म चढ़ाएं)
अक्षत- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, अक्षतान समर्पयामि। (अक्षत चढ़ाएं)
पुष्पमाला- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, पुष्पमालां समर्पयामि। (पुष्प, पुष्पमाला चढ़ाएं)
बिल्वपत्र- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, बिल्वपत्राणि समर्पयामि। (बिल्वपत्र चढ़ाएं)
फिर दूर्वा एवं धतूरे का फूल चढ़ाएं।
फिर धूप, धूप के बाद दीपक भगवान को बताएं, यह कहकर -
ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, धूप-माघ्रापयामि, दीपं दर्शयामि।
उसके बाद नैवेद्य लगाएं
ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, नैवेद्यं समर्पयामि (निवेदयामि)। आचमनीयं जलं समर्पयामि। ऋतुफलं समर्पयामि।
पुन: ऋतुफलं समर्पयामि।
फिर- ताम्बुल फलं हिरण्यगर्भ दक्षिणां समर्पयामि। इसके बाद प्रभु शिवजी की आरती करें।
आरती- ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, आरर्तिक्यं समर्पयामि। (आरती करके जल गिराएं)
फिर मंत्र पुष्पांजलि
ॐ नम: शिवाय, श्री भगवते साम्बसदाशिवाय नम:, मंत्र पुष्पांजलि समर्पयामि। (फूल चढ़ा दें)
इसके बाद प्रदक्षिणा करें, प्रदक्षिणा के बाद क्षमा-प्रार्थना करें।
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्।
पूजां नैव हि जानामि क्षमस्त परमेश्वर।।
फिर विसर्जन, विसर्जन के बाद समर्पण जल छोड़ें।
अनेन शिवपूजकर्मणा श्री यज्ञस्वरूप: शिव: प्रीयताम् न मम। पूजन कर्म समाप्त करें।
विशेष- उपरोक्त पूजन संक्षिप्त में घर पर ही प्रतिदिन कर सकते हैं। पूजन करने से पहले समस्त सामग्री अपने पास रख लें, जैसे- आरती की थाली, दीपक, अगरबत्ती, फूल, फूलमाला, पंचामृत, शुद्ध जल, घी, शहद, धतूरा, दूर्वा, कुशा आदि। पूजन करते समय पूर्ण ध्यान दें। शिवजी अवश्य आपकी मनोकामना पूर्ण करेंगे।
'शिव चालीसा' श्रावण मास में भगवान भोलेनाथ का 'शिव चालीसा' पढ़ने का अलग ही महत्व है। इस माह के अंतर्गत आप रोजाना शिव चालीसा का पाठ करके भगवान भोलेनाथ की कृपा प्राप्त करके अपने जीवन के सारे दुखों को दूर कर सकते हैं।
।।दोहा।।श्री गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान।
कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान॥
जय गिरिजा पति दीन दयाला। सदा करत सन्तन प्रतिपाला॥
भाल चन्द्रमा सोहत नीके। कानन कुण्डल नागफनी के॥
अंग गौर शिर गंग बहाये। मुण्डमाल तन छार लगाये॥
वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे। छवि को देख नाग मुनि मोहे॥
मैना मातु की ह्वै दुलारी। बाम अंग सोहत छवि न्यारी॥
कर त्रिशूल सोहत छवि भारी। करत सदा शत्रुन क्षयकारी॥
नन्दि गणेश सोहै तहँ कैसे। सागर मध्य कमल हैं जैसे॥
कार्तिक श्याम और गणराऊ। या छवि को कहि जात न काऊ॥
देवन जबहीं जाय पुकारा। तब ही दुख प्रभु आप निवारा॥
किया उपद्रव तारक भारी। देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी॥
तुरत षडानन आप पठायउ। लवनिमेष महँ मारि गिरायउ॥
आप जलंधर असुर संहारा। सुयश तुम्हार विदित संसारा॥
त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई। सबहिं कृपा कर लीन बचाई॥
किया तपहिं भागीरथ भारी। पुरब प्रतिज्ञा तसु पुरारी॥
दानिन महं तुम सम कोउ नाहीं। सेवक स्तुति करत सदाहीं॥
वेद नाम महिमा तव गाई। अकथ अनादि भेद नहिं पाई॥
प्रगट उदधि मंथन में ज्वाला। जरे सुरासुर भये विहाला॥
कीन्ह दया तहँ करी सहाई। नीलकण्ठ तब नाम कहाई॥
पूजन रामचंद्र जब कीन्हा। जीत के लंक विभीषण दीन्हा॥
सहस कमल में हो रहे धारी। कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी॥
एक कमल प्रभु राखेउ जोई। कमल नयन पूजन चहं सोई॥
कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर। भये प्रसन्न दिए इच्छित वर॥
जय जय जय अनंत अविनाशी। करत कृपा सब के घटवासी॥
दुष्ट सकल नित मोहि सतावै । भ्रमत रहे मोहि चैन न आवै॥
त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो। यहि अवसर मोहि आन उबारो॥
लै त्रिशूल शत्रुन को मारो। संकट से मोहि आन उबारो॥
मातु पिता भ्राता सब कोई। संकट में पूछत नहिं कोई॥
स्वामी एक है आस तुम्हारी। आय हरहु अब संकट भारी॥
धन निर्धन को देत सदाहीं। जो कोई जांचे वो फल पाहीं॥
अस्तुति केहि विधि करौं तुम्हारी। क्षमहु नाथ अब चूक हमारी॥
शंकर हो संकट के नाशन। मंगल कारण विघ्न विनाशन॥
योगी यति मुनि ध्यान लगावैं। नारद शारद शीश नवावैं॥
नमो नमो जय नमो शिवाय। सुर ब्रह्मादिक पार न पाय॥
जो यह पाठ करे मन लाई। ता पार होत है शम्भु सहाई॥
ॠनिया जो कोई हो अधिकारी। पाठ करे सो पावन हारी॥
पुत्र हीन कर इच्छा कोई। निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई॥
पण्डित त्रयोदशी को लावे। ध्यान पूर्वक होम करावे ॥
त्रयोदशी ब्रत करे हमेशा। तन नहीं ताके रहे कलेशा॥
धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे। शंकर सम्मुख पाठ सुनावे॥
जन्म जन्म के पाप नसावे। अन्तवास शिवपुर में पावे॥
कहे अयोध्या आस तुम्हारी। जानि सकल दुःख हरहु हमारी॥
॥दोहा॥
नित्त नेम कर प्रातः ही, पाठ करौं चालीसा।
तुम मेरी मनोकामना, पूर्ण करो जगदीश॥
मगसर छठि हेमन्त ॠतु, संवत चौसठ जान।
अस्तुति चालीसा शिवहि, पूर्ण कीन कल्याण॥
श्रावण सोमवार व्रत कथा
शिव शक्ति की सोमवार व्रत कथा
श्रावण सोमवार की कथा के अनुसार अमरपुर नगर में एक धनी व्यापारी रहता था। दूर-दूर तक उसका व्यापार फैला हुआ था। नगर में उस व्यापारी का सभी लोग मान-सम्मान करते थे। इतना सबकुछ होने पर भी वह व्यापारी अंतर्मन से बहुत दुखी था क्योंकि उस व्यापारी का कोई पुत्र नहीं था।
दिन-रात उसे एक ही चिंता सताती रहती थी। उसकी मृत्यु के बाद उसके इतने बड़े व्यापार और धन-संपत्ति को कौन संभालेगा।
पुत्र पाने की इच्छा से वह व्यापारी प्रति सोमवार भगवान शिव की व्रत-पूजा किया करता था। सायंकाल को व्यापारी शिव मंदिर में जाकर भगवान शिव के सामने घी का दीपक जलाया करता था।
उस व्यापारी की भक्ति देखकर एक दिन पार्वती ने भगवान शिव से कहा- 'हे प्राणनाथ, यह व्यापारी आपका सच्चा भक्त है। कितने दिनों से यह सोमवार का व्रत और पूजा नियमित कर रहा है। भगवान, आप इस व्यापारी की मनोकामना अवश्य पूर्ण करें।'
भगवान शिव ने मुस्कराते हुए कहा- 'हे पार्वती! इस संसार में सबको उसके कर्म के अनुसार फल की प्राप्ति होती है। प्राणी जैसा कर्म करते हैं, उन्हें वैसा ही फल प्राप्त होता है।'
दिन-रात उसे एक ही चिंता सताती रहती थी। उसकी मृत्यु के बाद उसके इतने बड़े व्यापार और धन-संपत्ति को कौन संभालेगा।
पुत्र पाने की इच्छा से वह व्यापारी प्रति सोमवार भगवान शिव की व्रत-पूजा किया करता था। सायंकाल को व्यापारी शिव मंदिर में जाकर भगवान शिव के सामने घी का दीपक जलाया करता था।
उस व्यापारी की भक्ति देखकर एक दिन पार्वती ने भगवान शिव से कहा- 'हे प्राणनाथ, यह व्यापारी आपका सच्चा भक्त है। कितने दिनों से यह सोमवार का व्रत और पूजा नियमित कर रहा है। भगवान, आप इस व्यापारी की मनोकामना अवश्य पूर्ण करें।'
भगवान शिव ने मुस्कराते हुए कहा- 'हे पार्वती! इस संसार में सबको उसके कर्म के अनुसार फल की प्राप्ति होती है। प्राणी जैसा कर्म करते हैं, उन्हें वैसा ही फल प्राप्त होता है।'
इसके बावजूद पार्वतीजी नहीं मानीं। उन्होंने आग्रह करते हुए कहा- 'नहीं प्राणनाथ! आपको इस व्यापारी की इच्छा पूरी करनी ही पड़ेगी। यह आपका अनन्य भक्त है। प्रति सोमवार आपका विधिवत व्रत रखता है और पूजा-अर्चना के बाद आपको भोग लगाकर एक समय भोजन ग्रहण करता है। आपको इसे पुत्र-प्राप्ति का वरदान देना ही होगा।'
पार्वती का इतना आग्रह देखकर भगवान शिव ने कहा- 'तुम्हारे आग्रह पर मैं इस व्यापारी को पुत्र-प्राप्ति का वरदान देता हूं। लेकिन इसका पुत्र 16 वर्ष से अधिक जीवित नहीं रहेगा।'
उसी रात भगवान शिव ने स्वप्न में उस व्यापारी को दर्शन देकर उसे पुत्र-प्राप्ति का वरदान दिया और उसके पुत्र के 16 वर्ष तक जीवित रहने की बात भी बताई।
भगवान के वरदान से व्यापारी को खुशी तो हुई, लेकिन पुत्र की अल्पायु की चिंता ने उस खुशी को नष्ट कर दिया। व्यापारी पहले की तरह सोमवार का विधिवत व्रत करता रहा। कुछ महीने पश्चात उसके घर अति सुंदर पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र जन्म से व्यापारी के घर में खुशियां भर गईं। बहुत धूमधाम से पुत्र-जन्म का समारोह मनाया गया।
व्यापारी को पुत्र-जन्म की अधिक खुशी नहीं हुई क्योंकि उसे पुत्र की अल्प आयु के रहस्य का पता था। यह रहस्य घर में किसी को नहीं मालूम था। विद्वान ब्राह्मणों ने उस पुत्र का नाम अमर रखा।
जब अमर 12 वर्ष का हुआ तो शिक्षा के लिए उसे वाराणसी भेजने का निश्चय हुआ। व्यापारी ने अमर के मामा दीपचंद को बुलाया और कहा कि अमर को शिक्षा प्राप्त करने के लिए वाराणसी छोड़ आओ। अमर अपने मामा के साथ शिक्षा प्राप्त करने के लिए चल दिया। रास्ते में जहां भी अमर और दीपचंद रात्रि विश्राम के लिए ठहरते, वहीं यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते थे।
लंबी यात्रा के बाद अमर और दीपचंद एक नगर में पहुंचे। उस नगर के राजा की कन्या के विवाह की खुशी में पूरे नगर को सजाया गया था। निश्चित समय पर बारात आ गई लेकिन वर का पिता अपने बेटे के एक आंख से काने होने के कारण बहुत चिंतित था। उसे इस बात का भय सता रहा था कि राजा को इस बात का पता चलने पर कहीं वह विवाह से इनकार न कर दें। इससे उसकी बदनामी होगी।
वर के पिता ने अमर को देखा तो उसके मस्तिष्क में एक विचार आया। उसने सोचा क्यों न इस लड़के को दूल्हा बनाकर राजकुमारी से विवाह करा दूं। विवाह के बाद इसको धन देकर विदा कर दूंगा और राजकुमारी को अपने नगर में ले जाऊंगा।
वर के पिता ने इसी संबंध में अमर और दीपचंद से बात की। दीपचंद ने धन मिलने के लालच में वर के पिता की बात स्वीकार कर ली। अमर को दूल्हे के वस्त्र पहनाकर राजकुमारी चंद्रिका से विवाह करा दिया गया। राजा ने बहुत-सा धन देकर राजकुमारी को विदा किया।
अमर जब लौट रहा था तो सच नहीं छिपा सका और उसने राजकुमारी की ओढ़नी पर लिख दिया- 'राजकुमारी चंद्रिका, तुम्हारा विवाह तो मेरे साथ हुआ था, मैं तो वाराणसी में शिक्षा प्राप्त करने जा रहा हूं। अब तुम्हें जिस नवयुवक की पत्नी बनना पड़ेगा, वह काना है।'
जब राजकुमारी ने अपनी ओढ़नी पर लिखा हुआ पढ़ा तो उसने काने लड़के के साथ जाने से इनकार कर दिया। राजा ने सब बातें जानकर राजकुमारी को महल में रख लिया। उधर अमर अपने मामा दीपचंद के साथ वाराणसी पहुंच गया। अमर ने गुरुकुल में पढ़ना शुरू कर दिया।
जब अमर की आयु 16 वर्ष पूरी हुई तो उसने एक यज्ञ किया। यज्ञ की समाप्ति पर ब्राह्मणों को भोजन कराया और खूब अन्न, वस्त्र दान किए। रात को अमर अपने शयनकक्ष में सो गया। शिव के वरदान के अनुसार शयनावस्था में ही अमर के प्राण-पखेरू उड़ गए। सूर्योदय पर मामा अमर को मृत देखकर रोने-पीटने लगा। आसपास के लोग भी एकत्र होकर दुःख प्रकट करने लगे।
मामा के रोने, विलाप करने के स्वर समीप से गुजरते हुए भगवान शिव और माता पार्वती ने भी सुने। पार्वतीजी ने भगवान से कहा- 'प्राणनाथ! मुझसे इसके रोने के स्वर सहन नहीं हो रहे। आप इस व्यक्ति के कष्ट अवश्य दूर करें।'
भगवान शिव ने पार्वतीजी के साथ अदृश्य रूप में समीप जाकर अमर को देखा तो पार्वतीजी से बोले- 'पार्वती! यह तो उसी व्यापारी का पुत्र है। मैंने इसे 16 वर्ष की आयु का वरदान दिया था। इसकी आयु तो पूरी हो गई।'
पार्वतीजी ने फिर भगवान शिव से निवेदन किया- 'हे प्राणनाथ! आप इस लड़के को जीवित करें। नहीं तो इसके माता-पिता पुत्र की मृत्यु के कारण रो-रोकर अपने प्राणों का त्याग कर देंगे। इस लड़के का पिता तो आपका परम भक्त है। वर्षों से सोमवार का व्रत करते हुए आपको भोग लगा रहा है।' पार्वती के आग्रह करने पर भगवान शिव ने उस लड़के को जीवित होने का वरदान दिया और कुछ ही पल में वह जीवित होकर उठ बैठा।
शिक्षा समाप्त करके अमर मामा के साथ अपने नगर की ओर चल दिया। दोनों चलते हुए उसी नगर में पहुंचे, जहां अमर का विवाह हुआ था। उस नगर में भी अमर ने यज्ञ का आयोजन किया। समीप से गुजरते हुए नगर के राजा ने यज्ञ का आयोजन देखा।
राजा ने अमर को तुरंत पहचान लिया। यज्ञ समाप्त होने पर राजा अमर और उसके मामा को महल में ले गया और कुछ दिन उन्हें महल में रखकर बहुत-सा धन, वस्त्र देकर राजकुमारी के साथ विदा किया।
रास्ते में सुरक्षा के लिए राजा ने बहुत से सैनिकों को भी साथ भेजा। दीपचंद ने नगर में पहुंचते ही एक दूत को घर भेजकर अपने आगमन की सूचना भेजी। अपने बेटे अमर के जीवित वापस लौटने की सूचना से व्यापारी बहुत प्रसन्न हुआ।
व्यापारी ने अपनी पत्नी के साथ स्वयं को एक कमरे में बंद कर रखा था। भूखे-प्यासे रहकर व्यापारी और उसकी पत्नी बेटे की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने प्रतिज्ञा कर रखी थी कि यदि उन्हें अपने बेटे की मृत्यु का समाचार मिला तो दोनों अपने प्राण त्याग देंगे।
व्यापारी अपनी पत्नी और मित्रों के साथ नगर के द्वार पर पहुंचा। अपने बेटे के विवाह का समाचार सुनकर, पुत्रवधू राजकुमारी चंद्रिका को देखकर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। उसी रात भगवान शिव ने व्यापारी के स्वप्न में आकर कहा- 'हे श्रेष्ठी! मैंने तेरे सोमवार के व्रत करने और व्रतकथा सुनने से प्रसन्न होकर तेरे पुत्र को लंबी आयु प्रदान की है।' व्यापारी बहुत प्रसन्न हुआ।
सोमवार का व्रत करने से व्यापारी के घर में खुशियां लौट आईं। शास्त्रों में लिखा है कि जो स्त्री-पुरुष सोमवार का विधिवत व्रत करते और व्रतकथा सुनते हैं उनकी सभी इच्छाएं पूरी होती हैं।
पार्वती का इतना आग्रह देखकर भगवान शिव ने कहा- 'तुम्हारे आग्रह पर मैं इस व्यापारी को पुत्र-प्राप्ति का वरदान देता हूं। लेकिन इसका पुत्र 16 वर्ष से अधिक जीवित नहीं रहेगा।'
उसी रात भगवान शिव ने स्वप्न में उस व्यापारी को दर्शन देकर उसे पुत्र-प्राप्ति का वरदान दिया और उसके पुत्र के 16 वर्ष तक जीवित रहने की बात भी बताई।
भगवान के वरदान से व्यापारी को खुशी तो हुई, लेकिन पुत्र की अल्पायु की चिंता ने उस खुशी को नष्ट कर दिया। व्यापारी पहले की तरह सोमवार का विधिवत व्रत करता रहा। कुछ महीने पश्चात उसके घर अति सुंदर पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र जन्म से व्यापारी के घर में खुशियां भर गईं। बहुत धूमधाम से पुत्र-जन्म का समारोह मनाया गया।
व्यापारी को पुत्र-जन्म की अधिक खुशी नहीं हुई क्योंकि उसे पुत्र की अल्प आयु के रहस्य का पता था। यह रहस्य घर में किसी को नहीं मालूम था। विद्वान ब्राह्मणों ने उस पुत्र का नाम अमर रखा।
जब अमर 12 वर्ष का हुआ तो शिक्षा के लिए उसे वाराणसी भेजने का निश्चय हुआ। व्यापारी ने अमर के मामा दीपचंद को बुलाया और कहा कि अमर को शिक्षा प्राप्त करने के लिए वाराणसी छोड़ आओ। अमर अपने मामा के साथ शिक्षा प्राप्त करने के लिए चल दिया। रास्ते में जहां भी अमर और दीपचंद रात्रि विश्राम के लिए ठहरते, वहीं यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते थे।
लंबी यात्रा के बाद अमर और दीपचंद एक नगर में पहुंचे। उस नगर के राजा की कन्या के विवाह की खुशी में पूरे नगर को सजाया गया था। निश्चित समय पर बारात आ गई लेकिन वर का पिता अपने बेटे के एक आंख से काने होने के कारण बहुत चिंतित था। उसे इस बात का भय सता रहा था कि राजा को इस बात का पता चलने पर कहीं वह विवाह से इनकार न कर दें। इससे उसकी बदनामी होगी।
वर के पिता ने अमर को देखा तो उसके मस्तिष्क में एक विचार आया। उसने सोचा क्यों न इस लड़के को दूल्हा बनाकर राजकुमारी से विवाह करा दूं। विवाह के बाद इसको धन देकर विदा कर दूंगा और राजकुमारी को अपने नगर में ले जाऊंगा।
वर के पिता ने इसी संबंध में अमर और दीपचंद से बात की। दीपचंद ने धन मिलने के लालच में वर के पिता की बात स्वीकार कर ली। अमर को दूल्हे के वस्त्र पहनाकर राजकुमारी चंद्रिका से विवाह करा दिया गया। राजा ने बहुत-सा धन देकर राजकुमारी को विदा किया।
अमर जब लौट रहा था तो सच नहीं छिपा सका और उसने राजकुमारी की ओढ़नी पर लिख दिया- 'राजकुमारी चंद्रिका, तुम्हारा विवाह तो मेरे साथ हुआ था, मैं तो वाराणसी में शिक्षा प्राप्त करने जा रहा हूं। अब तुम्हें जिस नवयुवक की पत्नी बनना पड़ेगा, वह काना है।'
जब राजकुमारी ने अपनी ओढ़नी पर लिखा हुआ पढ़ा तो उसने काने लड़के के साथ जाने से इनकार कर दिया। राजा ने सब बातें जानकर राजकुमारी को महल में रख लिया। उधर अमर अपने मामा दीपचंद के साथ वाराणसी पहुंच गया। अमर ने गुरुकुल में पढ़ना शुरू कर दिया।
जब अमर की आयु 16 वर्ष पूरी हुई तो उसने एक यज्ञ किया। यज्ञ की समाप्ति पर ब्राह्मणों को भोजन कराया और खूब अन्न, वस्त्र दान किए। रात को अमर अपने शयनकक्ष में सो गया। शिव के वरदान के अनुसार शयनावस्था में ही अमर के प्राण-पखेरू उड़ गए। सूर्योदय पर मामा अमर को मृत देखकर रोने-पीटने लगा। आसपास के लोग भी एकत्र होकर दुःख प्रकट करने लगे।
मामा के रोने, विलाप करने के स्वर समीप से गुजरते हुए भगवान शिव और माता पार्वती ने भी सुने। पार्वतीजी ने भगवान से कहा- 'प्राणनाथ! मुझसे इसके रोने के स्वर सहन नहीं हो रहे। आप इस व्यक्ति के कष्ट अवश्य दूर करें।'
भगवान शिव ने पार्वतीजी के साथ अदृश्य रूप में समीप जाकर अमर को देखा तो पार्वतीजी से बोले- 'पार्वती! यह तो उसी व्यापारी का पुत्र है। मैंने इसे 16 वर्ष की आयु का वरदान दिया था। इसकी आयु तो पूरी हो गई।'
पार्वतीजी ने फिर भगवान शिव से निवेदन किया- 'हे प्राणनाथ! आप इस लड़के को जीवित करें। नहीं तो इसके माता-पिता पुत्र की मृत्यु के कारण रो-रोकर अपने प्राणों का त्याग कर देंगे। इस लड़के का पिता तो आपका परम भक्त है। वर्षों से सोमवार का व्रत करते हुए आपको भोग लगा रहा है।' पार्वती के आग्रह करने पर भगवान शिव ने उस लड़के को जीवित होने का वरदान दिया और कुछ ही पल में वह जीवित होकर उठ बैठा।
शिक्षा समाप्त करके अमर मामा के साथ अपने नगर की ओर चल दिया। दोनों चलते हुए उसी नगर में पहुंचे, जहां अमर का विवाह हुआ था। उस नगर में भी अमर ने यज्ञ का आयोजन किया। समीप से गुजरते हुए नगर के राजा ने यज्ञ का आयोजन देखा।
राजा ने अमर को तुरंत पहचान लिया। यज्ञ समाप्त होने पर राजा अमर और उसके मामा को महल में ले गया और कुछ दिन उन्हें महल में रखकर बहुत-सा धन, वस्त्र देकर राजकुमारी के साथ विदा किया।
रास्ते में सुरक्षा के लिए राजा ने बहुत से सैनिकों को भी साथ भेजा। दीपचंद ने नगर में पहुंचते ही एक दूत को घर भेजकर अपने आगमन की सूचना भेजी। अपने बेटे अमर के जीवित वापस लौटने की सूचना से व्यापारी बहुत प्रसन्न हुआ।
व्यापारी ने अपनी पत्नी के साथ स्वयं को एक कमरे में बंद कर रखा था। भूखे-प्यासे रहकर व्यापारी और उसकी पत्नी बेटे की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने प्रतिज्ञा कर रखी थी कि यदि उन्हें अपने बेटे की मृत्यु का समाचार मिला तो दोनों अपने प्राण त्याग देंगे।
व्यापारी अपनी पत्नी और मित्रों के साथ नगर के द्वार पर पहुंचा। अपने बेटे के विवाह का समाचार सुनकर, पुत्रवधू राजकुमारी चंद्रिका को देखकर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। उसी रात भगवान शिव ने व्यापारी के स्वप्न में आकर कहा- 'हे श्रेष्ठी! मैंने तेरे सोमवार के व्रत करने और व्रतकथा सुनने से प्रसन्न होकर तेरे पुत्र को लंबी आयु प्रदान की है।' व्यापारी बहुत प्रसन्न हुआ।
सोमवार का व्रत करने से व्यापारी के घर में खुशियां लौट आईं। शास्त्रों में लिखा है कि जो स्त्री-पुरुष सोमवार का विधिवत व्रत करते और व्रतकथा सुनते हैं उनकी सभी इच्छाएं पूरी होती हैं।
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